Tuesday, September 13, 2011

आनंदम' की सितम्बर २०११ की घोष्टि










‘आनंदम’ की सितम्बर काव्य गोष्ठी

रिपोर्ट – आनंदम रिपोर्ट अनुभाग

‘आनंदम’ संगीत व साहित्य सभा की सितम्बर माह की काव्य गोष्ठी दि. 12 सितम्बर

को 2011 नई दिल्ली के कस्तूरबा गाँधी स्थित हिमालय हाऊस में मैक्स न्यू यॉर्क के

सभागार में समपन्न हुई.

सहजवाला, अलका सिन्हा, दर्द देहलवी, साज़ देहलवी, वीरेंद्र कमर, मनुज, शैलेश

सक्सेना, शशि जैन, अनिल भंडारी, आदर्श शुक्ल के. मोहन, शोभना मित्तल,

अब्दुल हमीद ‘साज़’, भूपेन्द्र कुमार, पूनम अग्रवाल, शांति अग्रवाल, व गोपाल

हरे आदि कवियों ने अपनी कविताओं गज़लों का पाठ किया.

अलका सिन्हा ने एक सशक्त कविता पढ़ी, जिस की कुछ पंक्तियाँ हैं:

जिंदगी को जिया मैंने इतना चौकस हो कर/ जैसे कि नींद में भी रहती है सजग/

कोई चढती उम्र की लड़की/ कि कहीं उसके पैरों से चादर ने उघड़ जाए.

‘साज़’ देहलवी बहुत शानदार गज़ल कहने के लिये दिल्ली की गोष्ठियों में सुप्रसिद्ध है,

उनकी गज़ल का एक सशक्त शेर:

मुझको शिकवा नहीं बादल की तुनक आबी पर

‘साज़’ आँखों से बरस जाता है सावन मेरा.

साज़ की तरह ज़र्फ देहलवी भी एक मंजे हुए शायर हैं, जैसे:

दौरे दुनिया अब कहाँ निस्बत सुहानी रह गई,

वो ज़माना तो बस अब बन कर कहानी रह गह गई.

वीरेंद्र ‘कमर’ की गज़ल का एक शेर:

इस गोष्ठी में ज़र्फ देहलवी, मुनव्वर सरहदी, प्रेमचंद

‘कमर’ दीमक अना की चाटने लग जाए जिसका तन

हसद की आग से वो शख्स सारी उम्र जलता है.

भूपेन्द्र ने शानदार गज़ल प्रस्तुत की:

पसीना जो बहा कर रोज़ रोटी की जुगत करते

ये किस्मत भी उन्हीं मेहनतकशों पर तंज़ कसती है

कुल मिला कर गीत गज़ल दोहों व कविता का अच्छा समां बंध गया. ‘दर्द’ देहलवी

लहू में डूबे हुए जिस्म तो नज़र आएं

अजीब बात है कातिल नज़र नहीं आते.

प्रेमचंद सहजवाला ने एक तरही गज़ल प्रस्तुत की जिस का तरही मिस्रा फैज़ अहमद

फैज़ की गज़ल से था: ‘कातिल से रस्मो राह सिवा कर चुके हैं हम...’ इस गज़ल से एक शेर:

जिन मुल्जिमों ने रौशनी ज़ुल्मत से कैद की

उनको ज़मानातों पे रिहा कर चुके हैं हम.

मनुज सिन्हा ने अपने दोहों से प्रभावित कर दिया:

रोज़ रोज़ पूजा करूँ, रक्खूँ दीप जलाय,

या रब अब आतंक से देश मुक्त हो जाए.

‘आनंदम’ अध्यक्ष जगदीश रावतानी ने एक सशक्त गज़ल पढ़ी. एक शेर:

दिन ईद का है आ के गले से लगा मुझे

होली पे जैसे तू मुझे मलता गुलाल है.

गोष्ठी संपन्न करते हुए ‘आनंदम’ अध्यक्ष जगदीश रावतानी ने सभी कवियों का

Saturday, August 13, 2011

‘आनंदम’ की 26वी रंगारंग काव्य गोष्ठी

















































‘आनंदम संगीत व साहित्य संस्था’ की काव्य गोष्ठी प्रतिमाह नई दिल्ली के कस्तूरबा गाँधी मार्ग स्थित हिमालय हाऊस में मैक्स न्यू यॉर्क के सभागार में होती है. अगस्त महीने में देश भर में स्वतंत्रता से जुड़ी असंख्य काव्य गोष्ठियां होती हैं. देश अनेकों समस्याओं, अप्रिय घटनाचक्र व अप्रिय विवादों के बावजूद आजादी के इस माह को एक पर्व की तरह मनाता है. दि. 8 अगस्त 2011 को ‘आनंदम’ संस्था की भी एक रंगारंग काव्य गोष्ठी हुई जिस में कवि भूपेन्द्र कुमार, प्रेमचंद सहजवाला, मुनव्वर सरहदी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, सरफराज़ फराज़ देहलवी, शैलेश सक्सेना, चाँद भरद्वाज, अब्दुल हमीद, साज़ देहलवी, अजय अक्स, अब्दुल रहमान मंसूद, लालचंद, अब्दुल रहमान मंसूर आदि कवियों ने काव्यपाठ किये. इस गोष्ठी की अध्यक्षता शायर मुनव्वर सरहदी ने की तथा संचालन ममता किरण ने किया. ‘आनंदम’ अध्यक्ष जगदीश रावतानी भी मंच पर उपस्थित थे.
गीत गज़ल व शायरी के विभिन्न रंगों का रस इस गोष्ठी में आने वाले कवियों से प्राप्त हुआ. देश की वर्तमान स्थिति पर लक्ष्मी शंकर वाजपेयी के दोहे दो टूक तरीके से बेहद सटीक चोट करते रहे. जैसे:
सुनो अली बाबा सुनो, जनता का यह शोर
कड़े नियंत्रण में रखो, अपने सारे चोर!
अयोध्या विवाद के फैसले पर प्रेमचंद सहजवाला का यह अप्रत्यक्ष किन्तु प्रत्यक्ष सा लगता शेर:
अदालत में गए ईश्वर पे हम सब फैसला सुनने,
मगर अफ़सोस सब आए फकत ईश्वर नहीं आया.
कवि भूपेन्द्र की कविता की कुछ पंक्तियाँ:
तन का जब जब सौदा करना पड़ता है,
मन को तब तब पल पल मरना पड़ता है.
शायर अब्दुल रहमान मंज़ूर की गज़ल के दो शेर:
सिर्फ इतना सवाल है मेरा,
क्या तुम्हें भी खयाल है मेरा,
तुम जहाँ साथ छोड़ जाओगे,
बस वहीं इंतकाल है मेरा.

अजय अक्स
यार थे जो पुराने गए,
हाय वो भी ज़माने गए
कृष्ण अब तो सुदर्शन उठा
बांसुरी के ज़माने गए
‘आनंदम’ अध्यक्ष जगदीश रावतानी
शायरी करने जो लगा हूँ मैं,
लगता है खुद से अब मिला हूँ मैं
अब नहीं चुभते ताने अपनों के
चांदनी धुप और हवा हूँ मैं
सरफराज़ फराज़ देहलवी
सौंप कर उस बेवफा को ही चरागे दिल मियां
हमने अपनी जिंदगी में खुद अँधेरा कर दिया
संचालिका ममता किरण ने तरन्नुम में एक मधुर गीत सुनाया जिसने पूरे सभागार का मन मोह लिया:
भीगा भीगा मन डोल रहा/ इस आंगन से उस अंगा/ यादों की अंजुरी से फिसले/जाने कितने मीठे लम्हे/ लम्हों में दादी नानी है
अंत में गोष्ठी अध्यक्ष मुनव्वर सरहदी ने खट्टे मीठे कई शेर सुनाए जिन से सभागार कहकहों से भर गया. पर प्रारंभ में उन्होंने कुछ गंभीर शायरी भी की:
अपना पाना नहीं रहा मक्सद,
अपना आईन सिर्फ खोना है
कौन समेट लेगा ये नहीं मालूम,
हम को बोना है सिर्फ बोना है
गोष्ठी को संपन्न करते हुए ‘आनंदम अध्यक्ष’ जगदीश रावतानी ने सभी कवियों को धन्यवाद किया व स्वतंत्रता दिवस की अग्रिम बधाइयाँ दीं.

Sunday, July 10, 2011

Anandam Ki Khoobsurat Kavya Goshti--4th July 2011

मैक्स न्यू-यॉर्क सभागार में ‘आनंदम’ की काव्य गोष्ठी संपन्न
रिपोर्ट – प्रेमचंद सहजवाला
जगदीश रावतानी द्वारा संचालित ‘आनंदम संगीत व साहित्य संस्था’ की जुलाई माह की काव्य गोष्ठी 9 जुलाई 2011 को कस्तूरबा गाँधी मार्ग स्थित हिमालय हाऊस के सभागार में संपन्न हुई. इस गोष्ठी की अध्यक्षता विख्यात कवि बुद्धिनाथ मिश्र ने की तथा मासूम गाज़ियाबादी, लक्ष्मी शंकर बाजपेई, ज़र्फ ‘देहलवी’ बिशन लाल, विशाल ‘बाग’, भूपेंद्र कुमार, नरेश कुमार, ए.एच. ‘साज़’, आसिफ अली, अजय ‘अक्स’, वीरेंद्र ‘कमर’, पूनम अगरवाल, रवीन्द्र शर्मा ‘रवि’, शांति अगरवाल, अबुल फैज़ अज़्म ,सहरियानवी’, दर्द ‘देहलवी’, अहमद अली बर्की ‘आज़मी’, सुरेश यादव, रंजन अग्रवाल, मुनव्वर ‘सरहदी’, ज़फर आदिल व मोइन अहमद ने भाग लिया. इस गोष्ठी का संचालन ममता किरण ने किया.
गोष्ठी में गज़ल गीत व छंद मुक्त कविता की अच्छी धूम रही. उदहारण के तौर पर ज़र्फ देहलवी की एक गज़ल का यह शेर:
दुनिया के लोग खुद पे नज़र फेंकते नहीं
आईना दिखाते हैं मगर देखते नहीं.
सभागार मासूम गाज़ियाबादी के शेरों पर वाह वाह कर के झूम उठा:
कोई पुरखों की ज़मीनें बेच कर भी पुर-सुकूँ
हम गुबारे बेच कर भी सो गए आराम से.
लक्ष्मी शंकर वाजपेयी की संक्षिप्त छंद गज़ल:
टू है बादल / तो बरसा जल.
एक शून्य को / कितनी हलचल.
नाम ही माँ का /है गंगाजल.
‘आनंदम’ संस्थापक जगदीश रावतानी की कविता पर भी खूब वाह वाह की दाद मिली : ‘जल्दी मत कर देर हो जाएगी/ पचास वर्ष की आयु जब होती है पार/ मनुष्य उतावलेपन में डूब करता है विचार/ उतावलेपन में मनुष्य हर कार्य जल्दी जल्दी करने लगता है/ स्वप्न अधूरे ना रह जाएं/ ये सोच कर डरने लगता है....
संचालक ममता किरण ने एक कविता सुनाई ‘शिकायत’:
किताबों के होंठों पर शिकायत है इन दिनों/कि अब उनमें महकता खत रख कर/ नहीं किया जाता / उनका आदान प्रदान.
गोष्ठी की सम्पन्नता के तौर पर अध्यक्ष बुद्धिनाथ मिश्र ने अपने रसीले गीतों को तरन्नुम में गा कर सभागार में रस घोल दिया:
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे / जाने किस मछली में बंधन की चाह हो.
अंत में जगदीश रावतानी ने सभी कवियों का धन्यवाद कर के गोष्ठी संपन्न की.

Kuch chitra prastut hain.






Wednesday, June 17, 2009

from Hind Yugm hide details 1:52 pm (2 minutes ago)
to Anandam music
date Jun 17, 2009 1:52 PM
subject code
mailed-by gmail.com

नई दिल्ली। आनंदम् की 11वीं काव्य गोष्ठी हमेशा की तरह पश्चिम विहार में जगदीश रावतानी जी के निवास स्थान पर संपन्न हुई। पिछली गोष्ठी में जहाँ कवि राकेश खंडेलवाल वाशिंगटन, अमरीका से पधारे थे, वहीं इस बार भी अमरीका के अटलांटा नगर से श्रीमती संध्या भगत की उपस्थिति ने गोष्ठी को अंतर-राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान कर दिया।


कार्यक्रम के चर्चा सत्र में "कविता एवं ग़ज़ल का समाज के प्रति योगदान" विषय पर डॉ. विजय कुमार ने अपने सारगर्भित विचार प्रस्तुत करते हुए कहा कि काव्य के माध्यम से कही हुई बातों का समाज पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। प्रेम सहजवाला ने इस विषय पर अपने विचार रखते हुए इस बात को रेखांकित किया कि साहित्य को समाज की जितनी सेवा करनी चाहिए उतनी कई कारणों से हो नहीं पा रही। जगदीश रावतानी ने इस चर्चा को व्यावहारिक मोड़ देते हुए कहा कि हम सभी साहित्यकारों को अपने लेखन के द्वारा समाज में घट रही भ्रष्टाचार की घटनाओं को भी उजागर कर सरकार तक अपनी बात कारगर ढंग से पहुँचानी चाहिए। उदाहरण के लिए आजकल खान-पान की वस्तुओं जैसे दूध, अनाज व फल-सब्जियों तक में जहरीले ससायन मिलाए जा रहे हैं, ऐसे विषयों पर भी रचनाएँ लिखकर विभन्न माध्यमों में प्रकाशित करवाई जाएँ।

दूसरे सत्र में काव्य गोष्ठी शुरू करने से पहले हाल ही में दिवंगत कवियों सर्वश्री ओम प्रकाश आदित्य, नीरज पुरी और लाड सिंह गुज्जर की आत्मा की शांति के लिए दो मिनट का मौन धारण किया गया। जगदीश रावतानी ने श्रद्धांजलि स्वरूप ओम प्रकाश आदित्य की एक हास्य रचना भी सुनाई। तत्पश्चात उपस्थित कवियों ने अपनी रचनाओं से लोगों का मन मोह लिया। कुछ रचनाएँ देखें-

जगदीश रावतानी-आनंदम के साथ प्रेमचंद सहजवाला
नईम बदायूँनी-
हमसे ज़िक्रे बहार मत कीजे
हमने देखा नहीं बहारों को

मजाज़ अमरोही-
तूने अए चारागर नहीं देखा
देखना था मगर नहीं देखा

दर्द देहलवी
दर्द देहलवी-
पहले तो चरागों की कमी से थे परेशाँ
अब इतना उजाला है दिखाई नहीं देता

डॉ. विजय कुमार-
कुछ तो दीदार की ऐ हमनवा सूरत निकले
फिर तेरी याद ने तूफान उठा रक्खा है

जगदीश रावतानी-
था ये बेहतर कि क़त्ल कर देते
रोते-रोते मरा नहीं होता
क्यों ये दैरो हरम कभी गिरते
आदमी गर गिरा नहीं होता

भूपेन्द्र कुमार-
है मुश्किल यूँ ख़ुदा की बंदगी में ख़ुद को पा लेना
मगर कहते हैं अब तो ख़ुद को ही अवतार चुटकी में
है इक अरसा लगा मुझे ग़ज़ल का फ़न समझने में
नमन करता हूँ उनको जो कहें अशआर चुटकी में

मनमोहन शर्मा तालिब-
सच्चाई के होठों पे फरिश्तों की दुआ है
सच्चाई का नाम ही ज़माने में ख़ुदा है

प्रेमचंद सहजवाला-
शोरीदा शहर में मुझे आता है ये ख़याल
दिल में ज़रा सी देर को उज़्लत बनी रहे

पंडित प्रेम बरेलवी-
आदमी आदमी को कुचलने लगा
दिल करे भी तो क्या अब करे जुस्तजू

सत्यवान-
दम तोड़ती है कला मेरी रद्दी काग़ज़ के पन्नों पर
वो सजे मंच तालियों की गूँज,
बनते हैं कैसे कलाकार मैं क्या जानूँ

ओ.पी. बिश्नोई सुधाकर-
पेड़ उगाकर हरे भरे, हरियाली को लाएँगे
जीवों की करेंगे रक्षा, सुखद पर्यावरण बनाएँगे

मुनव्वर सरहदी
साक्षात भसीन-
आँखों में तैरते ख़ून को, हमने यूँ पढ़ के देखा है
नामुमकिन टलता हादसा, जिसे होने से रोका है

संध्या भगत-
मुझको भी कोख में पलने दे
माँ, मेरा भी ये वास है
सात सपूतों वाली ये माँ
इक आँगन की फिर भी आस है

मुनव्वर सरहदी-
जो तेरी तस्बीह के दाने मुनव्वर रोक है ले
वो तेरा दुश्मन है, ऐसे आश्ना को छोड़ दे

इसके अतिरिक्त फ़ख़रुद्दीन अशरफ तथा शैलेश सक्सैना ने भी अपनी उम्दा रचनाएँ प्रस्तुत की जिन्हें इस गोष्ठी की रिकॉर्डिंग में सुना जा सकता है।



फ़ख़रुद्दीन अशरफ



शैलेश सक्सैना

Monday, June 1, 2009

जगदीश रावतानी आनंदम की तरही ग़ज़ल

दिल अगर फूल सा नही होता

यू किसी ने छला नही होता


था ये बेहतर कि कत्ल कर देती
रोते रोते मरा नही होता


दिल में रहते है दिल रुबाओं के
आशिको का पता नही होता

ज़िन्दगी ज़िन्दगी नही तब तक
ishk जब तक हुआ नही होता


पाप की गठरी हो गई भारी
वरना इतना थका नही होता


होश में रह के ज़िन्दगी जीता
तो यू रुसवा हुआ नही होता


जुर्म हालात करवा देते है
आदमी तो बुरा नही होता


ख़ुद से उल्फत जो कर नही सकता
वो किसी का सगा नही होता

क्यों ये दैरो हरम कभी गिरते
आदमी गर गिरा नही होता